मराठा आरक्षण पर शरद पवार बनाम देवेंद्र फडणवीस: संविधान संशोधन, 50% सीमा और सियासी दांव

विवाद की पृष्ठभूमि: मराठा बनाम ओबीसी, अदालत बनाम राजनीति

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण फिर सियासत के केंद्र में है। एनसीपी (एसपी) प्रमुख शरद पवार ने कहा कि स्थायी समाधान तभी निकलेगा जब केंद्र संविधान संशोधन करे। उनके मुताबिक तमिलनाडु ने 50% की सीमा पार कर उच्च कोटा लागू रखा है, तो महाराष्ट्र क्यों नहीं? उधर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पवार की राजनीतिक शैली पर तंज कसे और बीजेपी ने याद दिलाया कि 2014-2019 के बीच राज्य सरकार ने मराठाओं के लिए आरक्षण दिया था, जिसे बाद में अदालत में टिकाया नहीं जा सका।

यह बहस नई नहीं है। 2018 में महाराष्ट्र ने एसईबीसी कानून के जरिए मराठा समुदाय को अलग से आरक्षण दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2019 में इसे आंशिक रूप से बरकरार रखा, लेकिन 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया। अदालत ने कहा—50% की सीमा सामान्य नियम है, इससे ऊपर जाने के लिए असाधारण परिस्थितियों और ठोस डेटा की जरूरत होती है, जो पेश नहीं हुआ। साथ ही, उस समय 102वां संविधान संशोधन राज्य की शक्तियों को लेकर एक विवाद खड़ा करता था, जिसे बाद में 105वें संशोधन से स्पष्ट किया गया कि राज्य अपनी ओबीसी सूची बना सकते हैं।

तमिलनाडु का हवाला इस बहस में बार-बार आता है। वहां कुल आरक्षण 50% से ऊपर है और इसे नौवीं अनुसूची में रखकर बचाया गया। लेकिन 2007 के आई.आर. कोएल्हो फैसले के बाद नौवीं अनुसूची में गई व्यवस्थाएं भी न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह बाहर नहीं हैं। मतलब—सिर्फ अनुसूची में डाल देना स्थायी सुरक्षा नहीं देता, फिर भी यह एक राजनीतिक रास्ता माना जाता है।

जमीन पर स्थिति उलझी हुई है। सरकार ने हाल में एक सरकारी प्रस्ताव (जीआर) जारी कर कहा कि निज़ाम-युग के हैदराबाद राज्य की राजपत्रित सूचनाओं और अन्य रिकॉर्ड के आधार पर जिन मराठाओं की वंशावली ‘कुनबी’ (ओबीसी श्रेणी) से मेल खाती है, उन्हें ओबीसी प्रमाणपत्र दिए जा सकते हैं। मराठवाड़ा क्षेत्र में ऐसे दस्तावेज़ मिलने की संभावना अधिक बताई गई। इसका मकसद था—जिन्हें कानूनी तौर पर साबित हो सके, उन्हें मौजूदा ओबीसी कोटे में अवसर मिले।

यहीं से नया विवाद शुरू हुआ। ओबीसी, एससी और एसटी संगठनों ने कहा—अगर बड़ी संख्या में लोग ओबीसी कोटे में आए, तो हमारी सीटें घटेंगी। कई संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन और जीआर वापसी की चेतावनी दी। दूसरी तरफ, मराठा आंदोलन के नेता मनोज जरांगे की मांग है कि पूरे समुदाय को या तो अलग कोटा मिले या सभी को ओबीसी-कुनबी प्रमाणपत्र मिलें। सरकार के सूत्र कहते हैं—बिना दस्तावेज़ के सामूहिक प्रमाणपत्र देना अदालत में नहीं टिकेगा, इसलिए रिकॉर्ड-आधारित रास्ता चुना गया है।

पवार का तर्क सामाजिक-आर्थिक आधार पर टिका है। वह कहते हैं—मराठा समुदाय बड़ी संख्या में खेती पर निर्भर है, जोतें छोटी हो गई हैं और आय घट रही है, इसलिए शिक्षा और नौकरी में विशेष अवसर देने की जरूरत है। फडणवीस खेमे का कहना है—हमने पहले कानूनी ढांचे के भीतर आरक्षण दिया था, अदालत में बचाने की जिम्मेदारी बाद की सरकार निभा नहीं सकी। इसी बहस में ‘किसने क्या किया’ वाला राजनीतिक लेखा-जोखा भी शामिल हो गया है।

कुल तस्वीर समझने के लिए आरक्षण की सीमा पर एक नज़र जरूरी है। 1992 के ‘इंद्रा साहनी’ फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 50% की सामान्य सीमा तय की थी, हालांकि असाधारण परिस्थितियों में अपवाद संभव बताया। 2021 के ‘मराठा’ फैसले में कोर्ट ने कहा—ऐसे अपवाद के लिए ठोस, जाति-वार सामाजिक-आर्थिक डेटा होना चाहिए। इस बीच 103वें संविधान संशोधन से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% अलग आरक्षण आया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में बरकरार रखा। इसने यह संकेत दिया कि संसद अगर चाहे तो नीति का ढांचा बदल सकती है—यही बात पवार दोहरा रहे हैं।

आगे का रास्ता: कानूनी विकल्प, आंकड़ों की जरूरत और सियासी गणित

आगे का रास्ता: कानूनी विकल्प, आंकड़ों की जरूरत और सियासी गणित

अब प्रश्न है—समाधान कैसे निकलेगा? कुछ रास्ते सामने दिखते हैं:

  • संविधान संशोधन: या तो 50% सीमा पर स्पष्ट अपवाद बनाया जाए, या राज्यों को ठोस डेटा के आधार पर ऊपरी सीमा पार करने की शक्ति दी जाए। यह कठिन है, क्योंकि संसद में दो-तिहाई बहुमत और कई मामलों में राज्यों की मंजूरी चाहिए।
  • नौवीं अनुसूची: राज्य का कानून केंद्र से कहकर नौवीं अनुसूची में डलवाना एक राजनीतिक विकल्प है। लेकिन यह भी न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह बाहर नहीं है, फिर भी तमिलनाडु जैसे मॉडल का हवाला देकर इसे ठोस रास्ता मानने की मांग बढ़ सकती है।
  • मजबूत सामाजिक-आर्थिक सर्वे: अदालतें ‘मात्र राजनीतिक घोषणा’ नहीं, बल्कि जाति-वार, क्षेत्र-वार ठोस आंकड़े देखना चाहती हैं—शिक्षा, नौकरी, आय, जमीन, प्रतिनिधित्व। बिना इस डेटा के कोई भी नया कानून जोखिम में रहेगा।
  • रिकॉर्ड-आधारित ओबीसी मार्ग: जिन मराठाओं के परिवारिक रिकॉर्ड ‘कुनबी’ से मेल खाएं, उन्हें प्रमाणपत्र। यह सीमित दायरे में समाधान देता है, पर ओबीसी समूहों की आशंकाएं बढ़ती हैं, इसलिए संतुलन जरूरी है।

राजनीतिक दबाव भी कम नहीं। विधानसभा और लोकसभा की राजनीति में मराठा समुदाय निर्णायक माना जाता है। उधर ओबीसी, वीजेएनटी, एससी-एसटी भी बड़ा वोट-ब्लॉक हैं। सरकार को ऐसा फॉर्मूला चाहिए जो अदालत में भी टिके और सियासत में भी संतुलन रखे। इसीलिए एक तरफ समिति, दस्तावेज़ और सत्यापन; दूसरी तरफ दिल्ली से ‘बड़ा समाधान’ मांगने की कवायद चल रही है।

कानूनी रूप से देखें तो अदालत की नजर दो चीज़ों पर टिकी रहती है—पहला, क्या वास्तव में समुदाय ‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा’ साबित होता है; दूसरा, क्या सेवा और शिक्षा में उसका प्रतिनिधित्व कम है और क्या 50% से ऊपर जाना ‘असाधारण परिस्थिति’ है। पहले के मामलों में जब भी राज्य यह डेटा नहीं दे पाए, कानून टिके नहीं।

सरकार के हालिया जीआर पर लौटें तो असली परीक्षा क्रियान्वयन है। कितने लोगों को वैध रिकॉर्ड मिलेंगे? सत्यापन में कितना समय लगेगा? और ओबीसी समूहों की चिंताओं को कैसे समेटा जाएगा? अगर यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं हुई, तो नए मुकदमे और सड़क पर विरोध—दोनों बढ़ेंगे।

विपक्ष-सरकार की तकरार फिलहाल जारी है। पवार संविधान संशोधन का झंडा थामे हैं, फडणवीस अपने पुराने फैसलों और वर्तमान प्रक्रिया का बचाव कर रहे हैं। इस संघर्ष के बीच महत्वपूर्ण यह है कि राज्य भरोसेमंद डेटा जुटाए, कानूनी टिकाऊ मसौदा बनाए और सभी प्रभावित समूहों से संवाद बढ़ाए। तभी कोई भी नया कदम अदालत में खरा उतरने और समाज में स्वीकार होने की उम्मीद जगाएगा।

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akhila jogineedi

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मैं एक पत्रकार हूँ और मेरे लेख विभिन्न प्रकार के राष्ट्रीय समाचारों पर केंद्रित होते हैं। मैं राजनीति, सामाजिक मुद्दे, और आर्थिक घटनाओं पर विशेषज्ञता रखती हूँ। मेरा मुख्य उद्देश्य जानकारीपूर्ण और सटीक समाचार प्रदान करना है। मैं जयपुर में रहती हूँ और यहाँ की घटनाओं पर भी निगाह रखती हूँ।

टिप्पणि (3)

wave
  • Nivedita Shukla

    Nivedita Shukla

    सित॰ 20, 2025 AT 20:05 अपराह्न

    मराठा आरक्षण की कहानी एक नाटक की तरह है, जहाँ मंच पर राजनीति, न्याय और सामाजिक भावना का टकराव होता है। इस दुव्रांति में प्रत्येक पक्ष अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश करता है, जैसे कोई नायक और खलनायक की लड़ाई हो। पवार की बातों में सामाजिक समानता की निरागस भावना झलकती है, जबकि फडणवीस का प्रतिरोध इतिहास के धुंधले पन्नों को उजागर करता है। संविधान संशोधन का सवाल केवल क़ानून नहीं, बल्कि इस विविध समाज के भविष्य का प्रतिबिंब है। अंत में, यह सवाल हमें खुद से पूछने को मजबूर करता है-क्या हम अपने लोकतंत्र को समानता के साथ संतुलित रख पाएँगे?

  • Rahul Chavhan

    Rahul Chavhan

    सित॰ 27, 2025 AT 18:45 अपराह्न

    भाई साहब, ये मुद्दा तो वास्तव में जटिल है, पर हमें शांत रहकर तथ्यों को समझना चाहिए। समाज के सभी वर्गों को बराबर अवसर मिलना चाहिए, यही सच्ची प्रगति की कुंजी है। वाकई, अगर सही डेटा इकट्ठा हो जाए तो समाधान भी साफ़-सपाट हो जाएगा।

  • Joseph Prakash

    Joseph Prakash

    अक्तू॰ 4, 2025 AT 17:25 अपराह्न

    डेटा की कमी ही इस झगड़े की जड़ है यह स्पष्ट है 😐

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