नाना पाटेकर के खिलाफ तनुष्री दत्ता का मामला: अदालत ने किया दायर दायरा बाहर घोषित

जब तनुष्री दत्ता, बॉलीवुड की एक सावित्री‑समान आवाज़, ने फिर से पुलिस स्टेशन जाने की बात कही, तब पूरे शहर में चर्चा का एक नया दौर शुरू हो गया।

मुंबई के ओशीवारा पुलिस स्टेशन में 7 मार्च 2025 को मैजिस्ट्रेट एन.वी. बंसल ने दत्ता के दायर किए गए याचिका को खारिज कर दिया, क्योंकि 2008 की घटनाओं को 'समय सीमा' से बाहर माना गया। यह फैसला नाना पाटेकर (बिंदु) के खिलाफ जारी पहले के राहत आदेश को मंजूरी देता है, जो 2018 में दत्ता की #MeToo शिकायतों से जुड़ा था।

पृष्ठभूमि और केस का इतिहास

दृष्टान्त के तौर पर समझें: 2008 में फिल्म Horn Ok Pleassss के एक विशेष गाना शूटिंग के दौरान दत्ता ने कहा था कि वह “भद्दे या असहज” कदम नहीं करेगी। इसके बाद वह नाना पाटेकर, कोरियोग्राफर गणेश आचार्य, निर्माता समीर सिद्धुकी और निर्देशक राकेश सारंग पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती हैं।

2018 में दत्ता ने इस आरोप को सार्वजनिक किया, जिससे भारत में #MeToo आंदोलन को नई ऊर्जा मिली। उसी साल, मुंबई पुलिस ने FIR दर्ज की, परन्तु 2022 में मुंबई पुलिस ने इसे ‘भ्रामक और झूठा’ कह कर बंदी रिपोर्ट दाखिल की। दत्ता ने इस बंदी रिपोर्ट का विरोध किया और एक याचिका दायर की, जो आज के फैसले का मूल कारण बन गई।

केस की नवीनतम विकास

मैजिस्ट्रेट बंसल ने अपने आदेश में कहा कि 2008 की घटना अब ‘समय सीमा’ (Section 203, CrPC) के तहत नहीं लाई जा सकती, और इस कारण पाटेकर के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिला। उन्होंने यह भी नोट किया कि 2018 की अलग घटना, जिसमें पाटेकर ने एक समाचार चैनल पर अपमानजनक टिप्पणी की थी, उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिला।

दत्ता ने इन्स्टाग्राम पर एक वीडियो में आँसू भर कर कहा: “मैं अपने घर में ही परेशान हो रही हूँ, अस्पताल जाने की हालत नहीं है। पुलिस ने कहा है कि कल जाकर शिकायत लिखूँ।” इस वीडियो में वह अपने घर में लगातार अजीब आवाज़ें सुनने, घरेलू मददगारों के छिपे रहने और मानसिक तनाव का वर्णन करती हैं।

  • शिकायत के मुख्य धारा: धारा 354, 354(A), 34, 509 (IPC)
  • मुख्य आरोप: यौन उत्पीड़न, अपमानजनक टिप्पणी, घर में लगातार परेशानियाँ
  • वकील: नितिन सतपूते (वकालत 2018 से)
  • संबंधित स्थान: ओशीवारा पुलिस स्टेशन, मुंबई

पक्षकारों की प्रतिक्रियाएँ

नाना पाटेकर ने अभी तक कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया, पर उनके वकील ने कहा कि “कॉल कोर्ट के फैसले के बाद दत्ता को अपने दावे पर पुनर्विचार करना चाहिए।”

दत्ता की बहन, अभिनेत्री इशिता दत्ता सेठ, सामाजिक माध्यमों पर परिवार की ओर से समर्थन व्यक्त कर रही हैं कि “भाई-बहन का भरोसा टूटे नहीं, न्याय तभी मिलेगा जब सच्चाई सामने आएगी।”

मुंबई पुलिस के प्रवक्ता ने कहा, “हमारी जांच पूरी तरह से निष्पक्ष थी; दत्ता की नई शिकायत के लिए अब भी जांच जारी है, लेकिन मौजूदा बंदी रिपोर्ट को कानूनी तौर पर मान्यता मिली है।”

समाज पर प्रभाव और विश्लेषण

यह मामला केवल दो व्यक्तियों की नहीं, बल्कि पूरे भारतीय फिल्म जगत की #MeToo यात्रा की स्पष्टीकरण की भी चुनौतियों का प्रतीक बन गया है। जब अदालत ने समय सीमा का हवाला दिया, तो कानूनी विशेषज्ञों ने बताया कि “भले ही पीड़िता का दर्द वैध हो, लेकिन कानून के कठोर मानदंड कभी‑कभी न्याय को दूर कर देते हैं।”

विशेषज्ञ शशि शर्मा, मानवाधिकार कानूनी विशेषज्ञ, ने कहा, “अगर ऐसी बंदी रिपोर्टें लगातार आती रहेंगी, तो पीड़ितों का भरोसा हिल जाएगा और फिर कोई ‘आवाज़ उठाने’ को नहीं करेगा।”

कुल मिलाकर, दत्ता का केस अब भी ‘विचाराधीन’ बना हुआ है, क्योंकि वह नई शिकायत पर पुलिस स्टेशन जाने वाली है।

आगे क्या हो सकता है?

रहस्य यह है कि दत्ता के बगैर किसी साक्ष्य के मौजूदा FIR को पुनः खोलने में क्या बदलाव आएगा। यदि पुलिस नई शिकायत को गंभीरता से लेती है और तत्परता से जांच शुरू करती है, तो न्याय की दिशा बदल सकती है।

उसी समय, यदि अदालत नई शिकायत को भी समय सीमा के चलते खारिज कर देती है, तो यह #MeToo आंदोलन के लिए एक गंभीर झटका होगा। दोनों संभावनाएँ न केवल दत्ता के व्यक्तिगत जीवन को बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा की ‘क़दमताल’ को प्रभावित करेंगी।

मुख्य तथ्य

  • समय: 7 मार्च 2025, मुंबई कोर्ट
  • मुख्य न्यायाधीश: मैजिस्ट्रेट एन.वी. बंसल
  • पार्टियां: तनुष्री दत्ता बनाम नाना पाटेकर (और अन्य)
  • कानूनी आधार: धारा 354, 354(A), 34, 509 (IPC) तथा सेक्शन 203 (CrPC)
  • परिणाम: दायरा बाहर घोषित, दत्ता की नई शिकायत अभी भी जांच के अधीन

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

नाना पाटेकर की इस केस में भूमिका क्या थी?

नाना पाटेकर पर 2008 की फिल्म शूटिंग के दौरान यौन उत्पीड़न का आरोप था, लेकिन कोर्ट ने उसे समय सीमा के कारण बाहर माना। 2018 की अलग घटना में भी कोई पर्याप्त सबूत नहीं मिला।

तनुष्री दत्ता ने नई शिकायत क्यों दर्ज की?

दत्ता का कहना है कि उसे 2018 से ही अपने घर में लगातार शोर, घरेलू कर्मचारियों की घुसपैठ और मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है, जिसका वह अपने पेशेवर जीवन पर नकारात्मक असर बताती हैं।

क्या इस केस का #MeToo आंदोलन पर असर पड़ेगा?

किसी भी बड़े केस में न्याय की देरी या असफलता, आंदोलन की विश्वसनीयता को चोट पहुंचा सकती है। दत्ता का मामला इस बात का उदाहरण है कि न्यायिक प्रक्रियाएँ पीड़ितों के विश्वास को कैसे चुनौती देती हैं।

ओशीवारा पुलिस स्टेशन को इस केस में क्या भूमिका मिली?

ओशीवारा स्टेशन ने 2018 में दत्ता की FIR दर्ज की, बाद में 2022 में बंदी रिपोर्ट फाइल की, और अब दत्ता की नई घरेलू परेशानियों की शिकायत को आगे जांचने की तैयारी कर रहा है।

कानून के तहत “समय सीमा” (अधिसूचना समय) का क्या महत्व है?

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 203 के अनुसार, कुछ आपराधिक मामलों में “समय सीमा” लागू होती है। यदि वह अवधि समाप्त हो जाती है, तो अदालत उस मामले को उठाने से इनकार कर सकती है, जैसा कि इस केस में हुआ।

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akhila jogineedi

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मैं एक पत्रकार हूँ और मेरे लेख विभिन्न प्रकार के राष्ट्रीय समाचारों पर केंद्रित होते हैं। मैं राजनीति, सामाजिक मुद्दे, और आर्थिक घटनाओं पर विशेषज्ञता रखती हूँ। मेरा मुख्य उद्देश्य जानकारीपूर्ण और सटीक समाचार प्रदान करना है। मैं जयपुर में रहती हूँ और यहाँ की घटनाओं पर भी निगाह रखती हूँ।

टिप्पणि (1)

wave
  • Shashikiran B V

    Shashikiran B V

    अक्तू॰ 22, 2025 AT 21:32 अपराह्न

    जब आप इस केस को देखते हैं तो एक गहरी प्रणालीगत समस्या उजागर होती है। न्यायपालिका का ढांचा अक्सर बड़े मर्चेंटों और फिल्म इंडस्ट्री के इंट्राएज के हाथों में फँस जाता है। 2008 की घटना को ‘समय सीमा’ से बाहर करने का फैसला सिर्फ क़ानूनी शब्द नहीं बल्कि एक साजिश का हिस्सा लगता है। जैसे ही जमादखल की आवाज़ें उठती हैं, एक अदृश्य शक्ति तेज़ी से बीस लाखों की कागज़ी कार्रवाई करती है। इस तरह के निर्णयों में अक्सर ‘भ्रमित रिपोर्ट’ शब्द छिपा होता है, जिससे पीड़ित का दर्द दबी रह जाता है। कोर्ट ने कहा कि प्रमाण नहीं मिला, लेकिन प्रमाण बनाना ही कैसे संभव है जब साक्ष्य खुद ही तब तक नहीं मिलते जब तक अदालत पूछे नहीं। इस मामले में कॉम्प्लेक्स साक्ष्य का अभाव सबसे बड़ा धोखा है। एक तरफ़ पुलिस कहती है कि सब ठीक है, दूसरी तरफ़ पीड़ित कहती है कि घर में सन्नाटा नहीं। इस असंगति को काफ़ी लोग काली किताबों में दर्ज करते हैं। कई बार, पुलिस की ‘बंदि रिपोर्ट’ सिर्फ एक ढाल बन जाती है, जिससे वास्तविक जांच को रोका जाता है। फिर भी, अदालत ने ‘समय सीमा’ को अपना हथियार बना लिया, जिसका प्रयोग अक्सर उच्च वर्ग के लोगों को बचाने में किया जाता है। इस तरह के मोड़ पर, आम जनता को यह समझना चाहिए कि न्याय नहीं बल्कि सत्ता का खेल चल रहा है। अगर इस सिस्टम को नहीं बदला गया, तो अगली बार वही कहानी दोहराएगी। इसलिए, हमें इस मामले को सिर्फ एक व्यक्तिगत झगड़े के रूप में नहीं देखना चाहिए। यह एक सामाजिक चेतावनी है, जो बताती है कि कैसे ‘सिस्टम’ में बदलाव ही एकमात्र सच्चा समाधान हो सकता है।

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